पुलक उठा था तन मन अंग अंग मेरा जब प्रिय पुत्र गर्भ मध्य तू समाया था
पद जननी का किया तूने ही प्रदान मुझे थी अपूर्ण पूर्ण मुझे तूने ही बनाया था
हँस हँस के सदैव लोरियां सुनाईं तुझे निज तुष्टि हेतु तुझे वक्ष से लगाया था
जग कहे ऋणी पुत्र को सदैव माँ का किन्तु ऋणभार तूने पुत्र मुझपे चढ़ाया था
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
लखनऊ
अप्रतिम! बहुत सुन्दर!
ReplyDeletebahut abhaar brijesh ji
Deleteआपके छंदों का जवाब नहीं! शब्द सरिता की तरह बहते हैं ।
ReplyDelete- सी एम उपाध्याय "शून्य आकांक्षी"
bahut abhaar सी एम उपाध्याय ji
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