Tuesday 9 April 2013

ब्रह्म



उसी को गहो धर्मपन्थी बनो धर्म का हेतु सारा विशुद्ध्यर्थ है
तपस्या तथा योग हो दान या पुण्य भी कृत्य ये पूर्ण व्रत्यर्थ है
अरे वो दिए जा रहा है तुम्हे नित्य तो मान लो बन्धु अभ्यर्थ है
निराकार है या कि साकार है ब्रह्म पूँछो नहीं प्रश्न ये व्यर्थ है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

2 comments: